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कोरोना महामारी के इस “मुश्किल दौर में” गुजरात कि जनता को युं “राम भरोसे” क्युं छोड दीया…?

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कोरोना के कहर के बीच गुजरात के हालात कुछ कुछ गुरु दत्त की मशहूर फिल्म के टाइटल जैसे है – ‘साहब बीबी और गुलाम’. कोरोना और लोक डाउन जब से शुरू हुआ तब से मुख्यमंत्री, मंत्री समेत पूरी की पूरी पोलिटिकल लीडरशिप कही भी दिख नहीं रही. कोरोना की टर्मिनोलोजी में कहे तो मानो, कोरोंटाइन में है. मुख्यमंत्री विजय रुपानी का नाम तो लोग अब भूलने लगे है, क्यों की, फ्रंट पर और टीवी पर लाइव ब्रीफिंग मे भी हर रोज उनके प्रिंसिपल सेक्रेटरी अश्विनी कुमार ‘साहब’ ही दिखते है. दूसरा प्रमुख चहेरा है, हेल्थ सेक्रेटरी जयंती रवि का. ‘बीबीजी’ टीवी पर लाइव आकर कोरोना के लगातार बढ़ते आंकड़े मधुर मुस्कान के साथ बताती है. अब ‘गुलाम’ कौन यह बताने की जरुरत है?
बात कोरोना की करे, तो गुजरात और खास कर अहमदाबाद में स्थिति बद से बदतर होती जा रहे है. लोक्दाउन ३.० के शुरूआती दिनों में गुजरात में कोरोना के पोजिटिव केसीस ७,४०३ और मौत ४४९ है. जब की अहमदाबाद में पोजिटिव केसीस ५,२६० और मौत ३४३ है. इन आंकड़ो के साथ गुजरात देश में दुसरे नंबर पर है. बढ़ते केसीस की क्रेडिट कुछ हद तक कोरोना को तो ज्यादा हद तक सरकार के मिसमेनेजमेंट को भी जाती है. अहमदाबाद इसमें क्लासिक केस है. बढ़ते पोजिटिव केसीस के बावजूद, अचानक राज्य सरकार के अधिकारीओ ने दूध, दवाई, किराना और सब्जी के साथ साथ सभी तरह की दुकानों को खोलने का एलान कर दिया. सब दुकाने कुछ घंटो के लिए खुल भी गई. पर अहमदाबाद के म्युनिसिपल कमिश्नर विजय नहेरा को यह फैसला अहमदाबाद के लिए घातक लगा. उन्होंने राज्य सरकार के फरमान को मानने से इनकार कर दिया और उन्होंने अहमदाबाद में दूध, दवाई, किराना और सब्जी के अलावा किसी भी तरह की दुकान खोलने पर तत्काल रोक लगा दी. यह बात शहर के हित में थी पर यही से उनके और राजधानी गांधीनगर के आला अधिकारीओ के बीच अहम् का टकराव और भी बढ़ गया. आखिरकार सरकारी हायरार्की में जो होता है वही हुआ. राजधानी के आला अधिकारीओ ने म्युनिसिपल कमिश्नर नहेरा को शहर की इतनी संवेदनशील और गंभीर स्थिति के बीच जबरन ‘कोरोंटाइन’ पर भेज दिया और मुकेश कुमार को नया कमिश्नर बना दिया और तीन और वरिष्ठ अफसरों ने न्युयोर्क बनाने जा रहे अहमदाबाद का जिम्मा अपने हाथो में लिया. बड़े अफसर सबसे पहले क्या करेंगे? मीटिंग. इस आपात कालीन बैठक में पहला फैसला लिया गया, छह घंटे की नोटिस पर शहर की सभी किराना की दुकाने और सब्जी के ठेले बंध करने का. खबर टीवी और सोश्यल मीडिया के जरिये जैसे ही फैली, शहर में किराना और सब्जी का पेनिक बाइंग शुरू हुआ. लम्बी लम्बी लाइने उर शहर में दिखी. जिसमे सोश्यल डिस्टन्सिंग की धज्जियाँ उड़ गई. कमिश्नर नहेरा की कई दिनों की कड़ी महेनत पर कुछ ही घंटो में बर्बाद हो गई. इसके बुरे परिणाम तो हजारो पोजिटिव केसीस के रुप में आने वाले दिनों में दिखेंगे.
राज्य और केंद्र सरकार की असंवेदनशीलता का सबसे बड़ा शिकार बने राज्य के प्रवासी मजदूर. ये वही लोग है, जो लोग मोदी के वाईब्रंट गुजरात के विकास के पहिये है. पर जब उनको जरुरत पड़ी तब मोदी ने उनको उनके भाग्य के सहारे छोड़ दिया. उन मे से १६ बदनसीब तो औरंगाबाद में रेल की पटरी पर मारे गए. हजारो मजदूर गुजरात से पैदल कई सो किलोमीटर का सफ़र काट कर यूपी, बिहार और ओड़िसा जा रहे है. जरुरी तो यह था, की लोकड़ाउन का एलान करने से पहले इन लाखो मजदूरों की वतन वापसी की व्यवस्था करते अपने को चुनावी रेलिओ में मजदूर नंबर वन बताने वाले प्रधानमन्त्री. पर ऐसा कुछ भी न हुआ. ना प्रधान मंत्री की दो दो आकाशवाणी में उन गरीब मजदूरों को कोई जगह मिली. दो दो लोकड़ाउन के चालीस चालीस दिनों तक गरीब बेकार मजदूरों के बारे में ना कुछ सोचा गया, ना कुछ ठोस किया गया. मजदूर जब सडको पर आये, तब सरकार को अहेसास हुआ की, मजदूरों के सब्र का बाँध अब तूट सकता है, तब विशेष रेल गाडिओ का एलान हुआ. इसका मतलब सबने यही निकाला की प्रधानमंत्री आखिर मजदूरों को उनके घर पहूचा रहे है. इतने बड़े प्रधानमन्त्री गरीब मजदूरों से उसके पैसे भी वसूलेंगे ऐसा तो कोई सोच भी नहीं सकता था. पर ऐसा हुआ. सूरत से निकली पहली ट्रेन के मजदूरों से रेलवे ने बीजेपी कार्यकर्ताओं के जरिये ७१० -७१० रुपये वसूले. यह बात तब सामने आई, जब ट्रेन को सूरत के बीजेपी के सांसद सी.आर.पाटिल ने बीजेपी की झंडी दिखाकर रवाना की और मजदूरों ने रेल की खिड़की से अपनी टिकटे दिखाई.
तब बबाल शुरू हुआ. अगर मजदूर अपने पैसे से टिकट खरीदकर जा रहा है, तो सांसद बीजेपी की झंडी क्यों दिखा रहे है? हम जैसे पत्रकारों ने टीवी डिबेट में यह मांग की कि जिन मजदूरों के पास खाने के पैसे नहीं है, उनसे किराया वसूलना क्रूरता है. उनके जाने की व्यवस्था सरकार को फ्री में ही करनी चाहिए. उसके बाद कोंग्रेस हरकत में आई और सालो बाद उसने एक सही फैसला सही वक्त पर लिया. दूसरी सुबह सोनिया गांधी ने एलान किया की सभी मजदूरों के किराए का पैसा प्रदेश कोंग्रेस समितिया देगी. तब बीजेपी में हडकंप मचा ओऊ जूठ का सिलसिला शुरू हुआ. सबसे पहले तो बीजेपी के प्रवक्ताओने बेशर्मी से इनकार किया की ऐसा कोई रेल किराया मजदूरों से लिया ही नहीं जा रहा. पर वो जूठ लंबा नहीं चला, क्योंकि सरकारी प्रवक्ता बार बार कह चुके थे की मजदूरों को अपने पैसे पर यात्रा करनी होगी और मजदूरों के पास दिखाने के लिए रेल टिकटे भी थी. तब खुद केंद्र सरकार ने दूसरा जूठ चलाया कि, केंद्र सरकार किराए का ८५% दे रही है और राज्य सरकार १५%. यह जूठ का पर्दाफार्ष भी तुरंत हो गया क्यों की अगर ७१० रुपये १५% है, तो १००% टिकट का रूपया ४,७३३ होना चाहिए. जो सूरत या अहमदाबाद से यूपी या बिहार का रेल का नॉन एसी किराया हो ही नहीं सकता. सरकार अभी भी मानने को तैयार नहीं है और मजदूर मजबूरी में बीजेपी कार्यकर्ता के जरिये रेल को किराया देकर अपने गाँव जा रहे है. सूरत में एक मामले में तो बीजेपी कार्यकर्ता मजदूरों से ७०० के बजाय १००० रुपया वसूलता मोबाइल कैमरे पर पकड़ा गया. अब बीजेपी उसे अपना कार्यकता मानने से इनकार कर रही है. हालाकि इससे एक और बात काभी खुलासा हुआ. राज्य सरकार ने यूपी – बिहार जाने वाले प्रवासी मजदूरों के रजिस्ट्रेशन के लिए ओन लाइन व्यवस्था की थी. अब अनपढ़ मजदूर ओन लाइन ना समज सकते थे, ना उनके पास कोई व्यवस्था थी. रजिस्ट्रेशन के लिए उनको बीजेपी ऑफिस या कार्यकर्ता के पास जाना पड़ता था. वही उनसे रेल यात्रा का पैसा भी ले लिया जाता था. गुजरात में ऐसे २१ लाख मजदूरों का रजिस्ट्रेशन हुआ है. सबसे बड़ा सवाल ये की अगर किराया लेना ही था, तो रेलवे ने सीधा मजदूरों से क्यों नहीं लिया? पर जिनके पास पैसे नहीं है, ऐसे मजदूरों से किराया लेना ही क्यों? रेलवे अभी तो बंद ही पड़ी है तब प्रवासी मजदूरो के लिए फ्री ट्रेन क्यों नहीं हो सकती?
ये तो बात दुसरे राज्यों के मजदूरों की. सूरत में कई लाख हीरा मजदूर सौराष्ट्र के है. हीरा के कारखाने डेढ़ महीने से बंद है. ये मजदूर भी अपने गाँव जाना चाहते है. उनको तो गुजरात मई ही एक जिले से दुसरे जिले में जाना है. अभी तक उन पर भी पाबन्दी थी जब अनुमति मिली तो वो निजी बसों से जाने की. याने की पांच गुना किराया. फिर भी २,५०० – २,५०० रुपया किराया देकर कई हजार मजदूर सूरत से सौराष्ट्र गये. मीडिया में यह मुद्दा भी उठा की स्टेट ट्रांसपोर्ट की बसे बंद ही पड़ी है, उसका इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा. तब जाकर सरकार जागी और सरकारी बसे किराए से दौड़ाई. अब भी वो मुद्दा तो है ही की चुनावी रेलिओ में यही बसे मुफ्त में दौड़ती है.कोरोना के वक्त में सरकार मजदूरों को फ्री बसे क्यों नहीं दे सकती? सरकार के बंद दिलोदिमाग कोरोना के काल में भी नहीं खुलेंगे तो खुलेंगे कब?
देश और मानव इतिहास में भी यह पहला मौक़ा है की मंदिर – मस्जिद समेत सभी धर्मस्थान बंद है. दुनिया के सबसे मुश्किल दौर में इन्सान ने भले ही भगवान के पास जाना छोड़ दिया, लेकिन भगवान ने इन्सान का साथ नहीं छोड़ा है. इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि – सब कुछ राम भरोसे ही चल रहा है!
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