अपेक्षा और उपेक्षा सीधे तौर पर वे शब्द हैं जो ध्रुव और घोर विलोमानुपाती हैं। इनमें से एक का अस्तित्व होने पर दूसरा अपने आप सामने आ ही जाता है। कभी थोड़े समय में इनका प्रभाव दिखता है, कभी लम्बे समय बाद। किन्तु इतना अवश्य है कि जहाँ कहीं ये होंगे, एक-दूसरे के समकालिक ही होंगे। अपेक्षा जब हमारी प्रतिभा, कर्म और हुनर तथा सेवा-परोपकार से कम होगी तो मामला
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