स्वार्थ की अँधी दौड़ में मानवीय प्रजातियाँ कहीं स्थिर नहीं हो पा रही। लोग दौराहों, चौराहों, सर्कलों और अंधी राहों-गलियों में भटकने लगे हैं। जब मन भर आता है तब बदल लेते हैं अपनी जगह। इसी तरह जगह बदल-बदल कर कुछ पाने के फेर में भटकने के आदी होते जा रहे हैं। पूरी जीवनयात्रा इन्हीं दोराहों, चौराहों और सर्कलों की भूलभुलैया में चक्कर काट रही है। कोई कहीं भी संतुष्ट