मनुष्य का पूरा जीवन मनुष्यत्व से दैवत्व के सोपान तय करने के लिए बना होता है लेकिन समझदारी आते ही जीवात्मा मायावी संसार की भुलभुलैया में ऎसा फँस जाता है कि अपने अवतरण के सभी लक्ष्यों और मागोर्ंं को छोड़-छाड़ कर लगातार सफर करने लगता है। कभी ऎषणाओं के सागर में गोते लगाने लगता है कभी सत्संग में तालियाँ बजाते हुए ईश्वर के समीप होने का भ्रम पाल लेता है